Natasha

लाइब्रेरी में जोड़ें

राजा की रानी

सर्वस्व लगाकर संसार का उपभोग करने का वह उत्तम आवेग राजलक्ष्मी में अब नहीं है; आज वह शान्त, स्थिर हैं उसकी कामना वासना आज उसी के मध्यप में इस तरह गोता लगा गयी है कि बाहर से एकाएक सन्देह होता है कि वह है भी या नहीं। उसी ने इस सामान्य घटना को उपलक्ष्य करके मुझे फिर स्मरण दिला दिया कि आज उसके परिणत यौवन के सुगम्भीर तल-देश से जो मातृत्व सहसा जाग उठा है, तुरन्त ही जागे हुए कुम्भकर्ण के समान उसकी विराट क्षुधा के लिए आहार कहाँ मिलेगा? उसके सन्तान होने पर जो बात सहज और स्वाभाविक हो सकती, उसी के अभाव में समस्या इस तरह एकान्त जटिल हो उठी है।

उस दिन पटने में उसके जिस मातृरूप को देखकर मैं मुग्ध और अभिभूत हो गया था, आज उसी मूर्ति का स्मरण करके अत्यन्त व्यथा के साथ मैं केवल यही सोचने लगा कि इतनी बड़ी आग को केवल फूंक मारकर नहीं बुझाया जा सकता। इसीलिए, आज पराए लड़के को पुत्र कल्पित करने के खिलवाड़ से राजलक्ष्मी के हृदय की तृष्णा किसी तरह भी नहीं मिट रही है। इसलिए आज एक मात्र बंकू ही उसके लिए पर्याप्त नहीं है, आज दुनिया में जहाँ जितने भी लड़के हैं उन सबका सुख-दु:ख भी उसके हृदय को आलोड़ित कर रहा है।

बर्दवान में वे महाशय उतर गये। राजलक्ष्मी बहुत देर चुपचाप बैठी रही। मैंने खिड़की की ओर से दृष्टि हटाकर पूछा, “यह रोना किसके लिए हुआ? सरला के लिए, या उसकी माँ के लिए?”

राजलक्ष्मी ने मुँह उठाकर कहा, “मालूम होता है, तुम इतनी देर तक हम लोगों की बात चीत सुन रहे थे।”

मैंने कहा, “यों ही अनायास। स्वयं बात न करने पर भी बाहर से बहुत-सी बातें मनुष्य के कानों में आ घुसती हैं। संसार में भगवान ने कम बोलने वालों के लिए इस दण्ड की सृष्टि कर रक्खी है। इससे बचने की कोई युक्ति नहीं। खैर जाने दो, किन्तु यह ऑंखों का पानी किसके लिए झरा, सो नहीं बताया?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “मेरी ऑंखों का पानी किसके लिए झरता है, यह जानने से तुम्हें कोई लाभ नहीं।”

मैंने कहा, “लाभ की आशा नहीं करता- केवल नुकसान बचाकर ही चला जा सके तो काफी है। सरला अथवा उसकी माँ के लिए जितनी इच्छा हो ऑंसू बहाओ, मुझे कोई आपत्ति नहीं-किन्तु, उसके बाप के लिए बहाना मैं पसन्द नहीं करता।”

राजलक्ष्मी केवल एक 'हूँ' करके खिड़की के बाहर झाँकने लगी।

सोचा था कि यह दिल्लगी निष्फल नहीं जायेगी, अनेक रुँधे हुए झरनों के द्वार खोल देगी। किन्तु, सो तो हुआ नहीं; हुआ यह कि अब तक वह इस ओर देख रही थी सो दिल्लगी सुनकर उस ओर को मुँह फेरकर बैठ गयी।

किन्तु बहुत देर से मौन था- बातचीत करने के लिए भीतर ही भीतर एक आवेग उपस्थित हो गया था। इसलिए अधिक देर तक चुप न रह सका और बोला, “बर्दवान से कुछ खाने को मोल ले लिया होता!”

राजलक्ष्मी ने कोई जवाब नहीं दिया, वह उसी तरह चुप बनी रही।

मैं बोला, “दूसरे के दु:ख में रो-रोकर नद बहा दिया, और घर के दु:ख पर कान ही नहीं देतीं! तुमने यह विलायत से लौटे हुओं की विद्या कहाँ से सीख ली?”

राजलक्ष्मी ने इस दफे धीरे से कहा, “देखती हूँ कि विलायत से लौटे हुओं पर तुम्हारी भारी भक्ति है!”

मैंने कहा, “हाँ, वे लोग भक्ति के पात्र जो हैं!”

“क्यों, उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?”

“अभी तक तो कुछ नहीं बिगाड़ा किन्तु, बाद में कहीं कुछ बिगाड़ न दें, इस डर से पहले ही भक्ति करता हूँ।”

राजलक्ष्मी ने क्षण-भर चुप रहकर कहा, “यह तुम लोगों का अन्याय है। तुम लोगों ने उन्हें अपने दल से, जाति से, समाज से-सब ओर से बहिष्कृत कर दिया है। फिर भी, यदि वे लोग तुम्हारे लिए थोड़ा-सा भी कुछ करते हैं, तो उतने ही के लिए तुम्हें उनका कृतज्ञ होना चाहिए।”

मैंने कहा, “हम लोग बहुत ज्यादा कृतज्ञ होते, यदि वे उस क्रोध के कारण पूरे-पूरे मुसलमान या क्रिस्तान हो जाते! उन लोगों में जो अपने को 'ब्राह्म' कहते हैं वे ब्राह्म-समाज को नष्ट करते हैं, जो 'हिन्दू' कहते हैं वे हिन्दू समाज को हैरान करते हैं। यदि वे पहले यह ठीक करके कि स्वयं कौन हैं दूसरों के लिए रोने बैठते तो उससे उनका खुद का कल्याण होता और जिनके लिए रोते हैं उनका भी शायद कुछ उपकार हो जाता।”

राज्यलक्ष्मी बोली, “किन्तु, मुझे तो ऐसा नहीं जान पड़ता।”

मैंने कहा, “नहीं जान पड़ता तो कोई विशेष हानि नहीं। किन्तु, जिसके लिए इस समय अटका हुआ हूँ वह अन्य बात है। कहाँ, उसका तो कोई जवाब ही नहीं दिया?”

इस दफे राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, “अजी, उसके लिए अटकना नहीं पड़ेगा। पहले तुम्हारी भूख तो पक जाय, उसके बाद विचार किया जायेगा।”

मैंने कहा, “तब विचार क्या होगा, जिस-किसी स्टेशन से जो कुछ मिलेगा वही निगलने को दे दोगी!-किन्तु, सो नहीं होगा, मैं कहे रखता हूँ।”

मेरा उत्तर सुनकर वह मेरे मुँह की ओर कुछ देर चुपचाप देखती रही और फिर कुछ हँसकर बोली, “सो मैं कर सकती हूँ- तुम्हें विश्वास होता है?”

“मैंने कहा- “खूब! इतना-सा भी विश्वास तुम पर नहीं होगा?”

“तो ठीक है!” कहकर वह फिर अपनी खिड़की से बाहर झाँकती हुई चुपचाप बैठी रही।

अगले स्टेशन पर राजलक्ष्मी ने रतन को बुलाकर खाने के लिए जगह करा दी और उसे हुक्का लाने का हुक्म देकर थाली में समस्त खाद्य-सामग्री सजाकर सामने रख दी। देखा, इस विषय में कहीं बिन्दु-भर भी भूल-चूक नहीं हुई है- मुझे जो कुछ अच्छा लगता है वह सब चुन-चुन कर संग्रह करके लाया गया है।

बेंच पर रतन ने बिस्तर कर दिये। इतमीनान के साथ भोजन समाप्त करके गुड़गुड़ी की नली मुँह में डालकर आराम से ऑंखें मूँदने की तैयारी कर रहा था कि राजलक्ष्मी बोली, “खाने की चीजें उठा ले जा रतन, इनमें से जो भावे सो खा लेना- और तेरे डिब्बे में और भी कोई खावे तो दे देना।”

किन्तु, रतन को अत्यन्त लज्जित और संकुचित लक्ष्य करके मैंने कुछ, अचरज के साथ पूछा, “कहाँ, तुमने तो कुछ खाया नहीं?”

राजलक्ष्मी बोली, “नहीं, मुझे भूख नहीं है। जा न रतन, खड़ा क्यों है? गाड़ी चल देगी जो!”

रतन लज्जा के मारे मानो गड़ गया। “मुझसे बड़ी भूल हो गयी बाबू मुसलमान कुली से खाना छू गया है! कितना ही कहता हूँ- माँ, स्टेशन से कुछ खरीद लाने दो, किन्तु किसी तरह मानती ही नहीं।” इतना कहकर उसने मेरे मुँह पर अपनी कातर-दृष्टि डाली जैसे मेरी ही अनुमति चाह रहा हो।

किन्तु मैं कुछ कहूँ, इसके पहले ही राजलक्ष्मी ने उसे धमकाकर कहा, तूँ जायेगा नहीं, खड़ा-खड़ा तर्क करेगा?”

रतन फिर कुछ न बोला और भोजन के बर्तन हाथ में लेकर बाहर चला गया। ट्रेन के चलते ही राजलक्ष्मी मेरे सिरहाने आ बैठी और सिर के बालों में धीरे-धीरे अंगुलियाँ चलाते-चलाते बोली, “अच्छा देखो...”

बीच में ही टोककर बोला, “देखूँगा फिर कभी। किन्तु...”

उसने भी मुझे उसी घड़ी टोककर कहा, “तुम्हें 'किन्तु' से शुरू करके लेक्चर न देना होगा, मैं सब समझ गयी। मैं मुसलमान से घृणा नहीं करती; उसके छू लेने से भोजन नष्ट हो जाता है, सो भी नहीं मानती। यदि ऐसा होता तो तुम्हें अपने हाथों से वह भोजन न परोसती।”

“किन्तु, तुमने खुद क्यों नहीं खाया?”

“स्त्रियों को नहीं खाना चाहिए।”

“क्यों?”

“क्यों और क्या? स्त्रियों को खाने की मनाई है।”

“और पुरुषों के लिए मनाई नहीं है?”

राजलक्ष्मी ने मेरा सिर हिलाकर कहा- नहीं, मर्दों के लिए ये बँधे हुए आईन-कानून किसलिए? वे जो इच्छा हो खावें, जो इच्छा हो पहिनें, जैसे भी हो सुख से रहें- हम लोग आचार का पालन करती जावें, बस यही बहुत है। हम तो सैकड़ों कष्ट सह सकती हैं, किन्तु क्या तुम लोग सह सकते हो? यही देखो न शाम होते न होते ही भूल के मोर ऑंखों के आगे अंधेरा देखने लगे थे!”

   0
0 Comments